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अतीत के साथ ही समकालीन इतिहास बोध महत्वपूर्ण

आजकल देश की युवा पीढ़ी को परिमार्जित ज्ञान देने के लिए बीते इतिहास के लुप्त या उपेक्षित रूपों की तलाश हो रही है। यह तलाश 1857 की क्रांति यानी प्रथम स्वाधीनता संग्राम से लेकर आजादी की लड़ाई के अनछुए पहलुओं को उजागर करने और उसके बाद देश के नवनिर्माण में नेताओं के उचित योगदान के आकलन की भी है। इसमें कुछ शिकायतें भी हैं। एक यह कि जो इतिहास अभी तक पढ़ाया जाता है, वह दिल्ली पर केन्द्रित है। उसमें इतिहास नायक भी उत्तरी भारत के ज्यादा हैं। दक्षिणी भारत उपेक्षित न हो, पूर्वी भारत उपेक्षित न हो, उनके इतिहास और युग नायकों को भी उचित सम्मान दिया जाये, इसलिए उनकी जयंतियों को भी यादगार के रूप में मनाया जा रहा है। लेकिन यह शिकायत भी पैदा हो रही है कि इतिहास की इस तलाश में कहीं पूर्वाग्रही दृष्टि शामिल न हो जाये। कहीं इस संग्राम के कुछ हिस्से इसलिए ही गायब न कर दिए जाएं क्योंकि वे वर्तमान ‘युग पुरुषों’ की छवि को रुचते नहीं हैं। दरअसल, इस तरह का शोध कभी भी तटस्थ अध्येताओं को स्वीकार नहीं होता।

खैर, नयी पीढ़ी के लिए उपेक्षित नायकों को सामने लाने में कोई हर्ज नहीं है। पंजाब में शहीद-ए-आजम भगत सिंह को अभी तक शहीद का दर्जा क्यों नहीं मिला, से लेकर नेता जी सुभाष चंद्र बोस और प्रथम स्वाधीनता संग्राम में रानी झांसी के शौर्य भरे युद्ध को केवल उत्तराधिकार के लिए एक लड़ाई की संज्ञा दे देना कुछ ऐसे विषय रहे हैं जिन पर नये तलाशे जा रहे इतिहास ने प्रकाश डाला है। लेकिन अति उत्साह में इतिहास के कुछ पन्ने बिल्कुल लुप्त ही न हो जाएं, इसका ध्यान भी रखना होगा। मसलन, सरदार पटेल का योगदान भारत के एकीकरण में बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन भारतीय प्रजातंत्र के जनक और उसकी हर महत्वपूर्ण नींव के निर्माता पं. जवाहर लाल नेहरू का भी मूल्यांकन किसी प्रकार से कम नहीं होना चाहिए। खैर, ये इतिहास की ऐसी बातें हैं जिन्हें निखरते-संवरते अभी देर लगेगी। इतिहास के पन्नों में से कुछ बाहर उलीच दिया जाये व कुछ नया शामिल किया जाये- इसमें किसी को शिकायत नहीं लेकिन भारत के लिए जो नया इतिहास बन रहा है, उसका न केवल संज्ञान जरूरी है बल्कि जो नया इतिहास लिखा जाए, उसमें ध्यान रहे कहीं इसकी उपेक्षा न हो जाये।

मसलन, भारत के इतिहास में कोहिनूर के हीरे के महत्व का अंत नहीं। कभी वह राजा रणजीत सिंह के ताज का हिस्सा था। जब अंग्रेजों ने पंजाब पर अधिकार किया और दिलीप सिंह ने इंग्लैंड में शरण ले ली तो इतिहास के इसी उलटफेर में कोहिनूर हीरा इंग्लैंड के सम्राटों के ताज की आब बन गया। भारत के औपनिवेशक काल से कोहिनूर हीरे के इस्तेमाल से एक विवाद जुड़ गया था। इस विवाद का तीखा और कटु हो जाना, दावा जताना आदि जैसे इतिहास का रुख मोडऩे का प्रयास ही होगा। दरअसल, इतिहास ऐसे नहीं मुड़ता, यह बात स्पष्ट हो गई है। यूं भी संबंधों की जो नयी जन्म पत्री और लेखा-जोखा दुनिया में लिखा जा रहा है उसमें बीते इतिहास की जगह नया बन रहा इतिहास ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। हमारे देश के नौजवानों को इस नये इतिहास से भी परिचित होना चाहिए। ऐसे में नया इतिहास यह है कि भारत ने अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में अपनी परिपक्व कूटनीति के साथ और आर्थिक जगत में इस महामंदी के काल में भी अपनी विकास दर को बनाए रखते हुए जो गरिमा प्राप्त की है, उससे उसकी आवाज दुनियाभर में सुनी जाने लगी है।

इंग्लैंड में भारतीय मूल के प्रधानमंत्री से भारत के पक्ष के प्रति थोड़ा-सा उदासीन होने की चाहे जितनी भी शिकायतें हों लेकिन आज का इंग्लैंड भी भारत की उपेक्षा नहीं कर सकता है। वह देश भारत के विशाल मांग वाले बाजार और उसकी सस्ती श्रम आपूर्ति के बाजार को उपेक्षित करके नहीं चल सकता है। इसलिए अब जो इतिहास इंग्लैंड में बनने जा रहा है, वह अपने आप ही बदलता नजर आने लगा है। इसी माह इंग्लैंड में महाराजा चाल्र्स तृतीय और महारानी कैमिला का राज्याभिषेक समारोह होने जा रहा है। आमतौर पर इस समारोह में वर्तमान महारानी जो ताज पहनतीं, उसमें कोहिनूर शामिल होता। पारम्परिक ताज में कोहिनूर का यह हीरा है। लेकिन ब्रिटेन ने इस बारे में समझदारी पूर्ण फैसला किया है। ताजपोशी समारोह के लिए महारानी कैमिला ने महारानी मैरी के मुकुट को चुना है। इसका डिजाइन चाहे महारानी अलैक्जेंड्रा के मुकुट से प्रेरित है जिसमें मूल रूप से कोहिनूर का हीरा था लेकिन अब वह वहां नहीं है। कोहिनूर को अब सार्वजनिक प्रदर्शनी में विजय के प्रतीक के रूप में आरक्षित कर दिया गया है। नि:संदेह भारत के लोगों की भावनाओं की कद्र करते हुए इंग्लैंड की राजशाही का यह फैसला इंग्लैंड के राजनीतिज्ञों की मर्जी के बिना नहीं हो सकता। इस फैसले को भारत को एक ऐसी सद्भावना के रूप में देखना चाहिए जिसके तहत इंग्लैंड ने भारतीयों की भावनाओं को उद्वेलित करने का प्रयास नहीं किया और अब ताजपोशी में कोहिनूर का इस्तेमाल नहीं होगा। यह है वो नया इतिहास जिसे भारतीयों को अंतर्राष्ट्रीय फलक पर प्राप्त नयी गरिमा ने यथार्थ रूप दिया है।

बेशक, इस गरिमा का प्रदर्शन आर्थिक इतिहास में बढ़ते कदमों से भी हो रहा है। स्पष्ट है कि आने वाले दिनों में भारत जो दुनिया का सबसे बड़ा आबादी वाला देश बन जायेगा, मंदी के दिनों में एक ऐसे मांग बाजार के रूप में उभरेगा जिसके लिए अमेरिका से लेकर इंग्लैंड तक के मंदीग्रस्त निवेशक प्राथमिकता चाहेंगे। शायद यही कारण है कि जब भारत ने अमेरिका और पश्चिमी देशों के निषेध के बावजूद रूस से व्यापार जारी रखने और सस्ता तेल खरीदते रहने का फैसला किया तो किसी भी विरोधी पक्ष के देश अमेरिका, यूरोप या अन्य पश्चिमी देशों ने इसे मुद्दा नहीं बनाया। यह भी कि वही कच्चा तेल जो भारत में रूस से सस्ता आयात किया उसे अपनी रिफाइनरियों में पेट्रोल और डीजल बनाकर उनको बेचा, तो भी इन देशों ने उसे स्वीकार कर लिया। ये हैं बदलती सच्चाइयां जिनके पीछे आर्थिक और व्यावसायिक तथ्य हैं, जिनके परिवर्तनों का इतिहास आज एक नये युग बोध का सृजन कर रहा है। जरूरी है कि इस इतिहास की पहचान की जाये, न कि अतीत के अंधेरों में जाकर ऐतिहासिक तथ्यों को तोडऩे-मरोडऩे का आक्षेप झेला जाए। क्या दुनिया के नये इतिहास में यह कम महत्वपूर्ण है कि इस समय भारत जी-20 के अति समर्थ देशों के मंच की अध्यक्षता एक साल के लिए कर रहा है। भारत द्वारा प्रेरित क्वाड देशों के समूह में पर्यावरण प्रदूषण के विरुद्ध लड़ाई का जो आह्वान हुआ है, उसे भी उन बाहुबली देशों ने स्वीकार किया है जो आज तक इस संघर्ष को स्वीकार करने से कतराते रहे हैं। क्या इतिहास की इन नयी सच्चाइयों का संज्ञान अतीत के अंधेरे में तलाशे तथ्यों से अधिक महत्वपूर्ण नहीं? शायद यह नयी पीढ़ी के लिए अधिक प्रेरक ही होगा।
लेखक साहित्यकार हैं।

(साभार दै.ट्रि.)

सुरेश सेठ

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