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नई बनाम पुरानी पेंशन का विवाद

सरकारी कर्मचारियों की पेंशन की समस्या का संतोषजनक समाधान जरूरी है। वर्षों से चली आ रही पुरानी पेंशन योजना एक कल्याणकारी सरकार की सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से अच्छी योजना थी। देश के अधिकांश सरकारी कर्मचारी, जिनको पुरानी पेंशन मिल रही है वह उनके ‘बुढ़ापे की लाठी’ के समान है। इससे उनमें आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान बना हुआ है। उन्नीस साल पहले केंद्र सरकार ने पुरानी पेंशन व्यवस्था की जगह नई पेंशन योजना यानी एनपीएस लागू की थी। यह पेंशन व्यवस्था केंद्र सरकार के सशस्त्र सुरक्षा बल को छोड़ कर सभी कर्मचारियों पर लागू है। बाद में इस पेंशन योजना को पश्चिम बंगाल को छोड़ कर सभी राज्यों ने लागू कर दिया था। इस योजना के अंतर्गत पेंशन के लिए एक कोष बनाने की व्यवस्था की गई, जिसमें कर्मचारी के वेतन से दस प्रतिशत राशि काटने और उसमें दस प्रतिशत राशि सरकार द्वारा मिला कर एक कोष में जमा करने की व्यवस्था की गई। उस कोष के लिए एक नियामक संस्था बनाई गई, जो इस राशि का सरकारी बांड और कुछ प्रतिशत पूंजी बाजार में शेयरों और अन्य प्रतिभूतियों में निवेश करती है। उस पर जो लाभ मिलता है वह कर्मचारी के लिए अलग से रखे गए खाते में जमा होता जाता है। कर्मचारी की सेवा निवृत्ति पर इस खाते में से साठ प्रतिशत राशि वह एकमुश्त निकाल सकता है और शेष चालीस प्रतिशत राशि को जीवन बीमा निगम सहित चार अन्य कंपनियों की पेंशन योजनाओं में से किसी एक को चुनने का विकल्प दिया जाता है।
बाद में वह कंपनी कर्मचारी को उसकी जमा राशि के आधार पर उसके द्वारा चुनी गई योजना के अंतर्गत पेंशन की गणना करके प्रति माह पेंशन देती है। यह राशि आजीवन स्थिर रहती है। जबकि पुरानी पेंशन योजना में कर्मचारी के सेवानिवृत्त होने के समय वेतन की लगभग आधी राशि पेंशन के रूप में मिलती है, सरकार द्वारा घोषित महंगाई भत्ता और वेतन आयोग का लाभ भी उसमें मिलता है।

वर्तमान दरों के अनुसार एनपीएस में प्रति एक लाख रुपए की जमा राशि पर कर्मचारी को पांच सौ से छह सौ रुपए प्रति माह पेंशन बनती है। इस प्रकार इस कोष में अगर कर्मचारी के दस लाख रुपए जमा हों, तो उसकी पेंशन पांच हजार से छह हजार रुपए प्रति माह के बीच ही रहती है। मान लीजिए, किसी व्यक्ति का नई पेंशन योजना के अंतर्गत पिछले दस साल से उसका अंशदान कट रहा है और सरकार भी अपना अंशदान मिलाकर जमा करा रही है। इस प्रकार उसके पेंशन कोष में अब तक लगभग पंद्रह लाख रुपए जमा हो चुके हैं और पंद्रह साल की उसकी नौकरी और शेष है, जिसमें पच्चीस लाख रुपए और जमा हो जाएंगे। इस प्रकार कुल पचास लाख रुपए में से अगर वह साठ प्रतिशत राशि निकाल ले, तो शेष बचे बीस लाख रुपए के आधार पर उसकी पेंशन छह सौ रुपए प्रति लाख मानें, तो उसको अधिकतम बारह हजार रुपए महीना पेंशन मिलेगी। अगर वह साठ प्रतिशत न निकाले, तो भी पेंशन लगभग तीस हजार रुपए बनेगी, वह भी बिना महंगाई भत्ता, बिना वेतन आयोग के लाभ, बिना मेडिकल सुविधा के। यह जीवन भर उतनी ही बनी रहेगी। आज से पंद्रह साल बाद एक सामान्य व्यक्ति बारह या तीस हजार रुपए में क्या कर सकेगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है।

2004 में जब यह पेंशन योजना लागू हुई थी, तो कर्मचारियों को शुरू-शुरू में सहज और आकर्षक लगी, लेकिन जब कोई कर्मचारी बीच में सेवानिवृत हुआ और उसको मिलने वाली पेंशन की राशि का पता चला, तब उसको समझ में आया कि यह पेंशन तो पुरानी पेंशन की तुलना में कुछ भी नहीं है। तब उसने खुद को ठगा-सा महसूस किया। धीरे-धीरे इस योजना का विरोध शुरू हो गया। केंद्र और राज्य सरकारों के कर्मचारी समय-समय पर अपना विरोध दर्ज कराने लगे। कई बार बड़े स्तर पर नई पेंशन योजना की जगह वापस पुरानी पेंशन शुरू करने की मांग उठनी शुरू हो गई। यह मांग किसी न किसी रूप में पिछले दस वर्षों से उठ रही है। इसे सरकारों ने गंभीरता से नहीं लिया। जबकि इनमें बड़ी संख्या में कर्मचारी शामिल हुए थे। नई की जगह पुरानी पेंशन का मामला तब तूल पकड़ गया, जब पिछले साल राजस्थान सरकार ने नई पेंशन योजना को समाप्त करके उसके स्थान पर पुरानी पेंशन योजना को वापस लागू कर दिया। राजस्थान के बाद छत्तीसगढ़, झारखंड, हिमाचल प्रदेश और पंजाब सरकार ने भी पुरानी पेंशन योजना लागू कर दी। आंध्र प्रदेश में नई पेंशन योजना का संशोधित रूप लागू है। आंध्र सरकार की पेंशन योजना के तहत अगर कोई कर्मचारी अपने मूल वेतन का हर महीने दस प्रतिशत राशि जमा कराता है, तो उसमें राज्य सरकार अपनी तरफ से दस प्रतिशत राशि जमा करके उसको सेवानिवृति के समय अंतिम वेतन की तैंतीस फीसद राशि गारंटी पेंशन के रूप में प्रदान करती है। अगर कर्मचारी प्रति माह चौदह प्रतिशत जमा करता है, तो उसे चालीस प्रतिशत तक गारंटी पेंशन मिल सकती है। ये पेंशन लाभ वर्तमान एनपीएस की तुलना में काफी अच्छे हैं।

चुनावी वर्ष होने के कारण कई विपक्षी दल नई पेंशन योजना की जगह पुरानी पेंशन लागू करने का वादा कर रहे हैं। महाराष्ट्र और हरियाणा की सरकारों ने भी पुरानी पेंशन बहाल करने का आश्वासन दिया है। केंद्र सरकार पर भी इस मामले में लगातार दबाव पड़ रहा था। उसने नई पेंशन योजना में अपने अंशदान को दस प्रतिशत से बढ़ा कर चौदह प्रतिशत कर दिया, फिर भी कर्मचारियों की मांग और दबाव कम नहीं हुए। कर्मचारियों का तर्क है कि एमएलए, एमपी, मंत्री वगैरह पर एनपीएस क्यों नहीं लागू है। वे जितनी बार चुने जाते हैं, उतनी बार उनका पेंशन लाभ बढ़ जाता है। फिर सरकारी कर्मचारी, जो अपने जीवन का स्वर्णिम काल सरकारी सेवा में लगा देते हैं उनको पेंशन लाभ देने में इतनी आनाकानी क्यों की जाती है।
अगले आम चुनावों के मद्देनजर केंद्र सरकार को भी इस मुद्दे पर ध्यान देने को विवश होना पड़ा है। हाल ही में केंद्रीय वित्तमंत्री ने नई पेंशन योजना को और आकर्षक बनाने के लिए एक समिति गठित करने की घोषणा की। चार सदस्यीय समिति का स्वरूप भी स्पष्ट कर दिया गया है। इस समिति का अध्यक्ष वित्त सचिव होगा और इसमें तीन और सदस्य होंगे, जिनमें कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के सचिव, वित्त विभाग के विशेष सचिव और पेंशन फंड नियामक एवं विकास प्राधिकरण के चेयरमैन होंगे। यह समिति मौजूदा राष्ट्रीय पेंशन की व्यवस्था और संरचना में बदलाव की जरूरत को चिह्नित करते हुए सरकारी कर्मचारियों की पेंशन में सुधार संबंधी सुझाव देगी।

सरकारी कर्मचारियों की पेंशन की समस्या का संतोषजनक समाधान जरूरी है। वर्षों से चली आ रही पुरानी पेंशन योजना एक कल्याणकारी सरकार की सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से अच्छी योजना थी। देश के अधिकांश सरकारी कर्मचारी, जिनको पुरानी पेंशन मिल रही है वह उनके ‘बुढ़ापे की लाठी’ के समान है। इससे उनमें आत्मनिर्भरता और आत्मसम्मान बना हुआ है। जब सेवानिवृत्त व्यक्ति कोई और काम करने की स्थिति में नहीं रहता, तब उसको अपने जीवन यापन के लिए किसी के सामने हाथ फैलाने की जरूरत न पड़े, इसके लिए पुरानी पेंशन जरूरी है। सरकार को पुरानी पेंशन देने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। इसके लिए अतिरिक्त संसाधन जुटाने के लिए ऐसे प्रयास करने चाहिए, जिनसे आम आदमी पर बोझ पड़े बिना आवश्यक राशि की व्यवस्था हो सके। इसमें अगर बहुत कठिनाई आती है, तो आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा लागू पेंशन माडल को और अधिक आकर्षक बना कर लागू किया जा सकता है। कुल मिलाकर पेंशन के मुद्दे पर संतोषजनक समाधान जरूरी है, अन्यथा यह मुद्दा आम चुनाव और राज्यों के चुनावों में पार्टियों के गले की हड्डी बन सकता है और उसका खमियाजा उनको भुगतना पड़ सकता है।

-(साभार : जनसत्ता)
अजय जोशी

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