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सनातन धर्म के तीन मूल आधार स्तंभ – कर्म नियम, पुनर्जन्‍म एवं मोक्ष

सनातन धर्म के तीन मूल आधार स्तंभ हैं। कर्म नियम, पुनर्जन्‍म एवं मोक्ष। इनमें सर्वप्रथम है कर्म नियम। सनातन धर्म मानता है कि जो व्यक्ति जैसा कर्म करता है उसको वैसा ही फल मिलता है।

कर्म नियम सनातन धर्म में ऋग्वेद के समय से चला आ रहा सिद्धांत है। ऋग्वेद में मंत्र दृष्टा ऋषियों ने विचार करके पाया कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में अकृताभ्‍य उपगम और कृत हानि नहीं हो सकती।

अकृताभ्य उपगम का अर्थ है कि जो कर्म हमने नहीं किए हैं उसके परिणाम हमें मिलेंगे। कृत हानि का अर्थ है कि जो कर्म हमने किए हैं उसके परिणाम हमें न मिलें। ऐसा नहीं हो सकता।

जैसे यदि हमने किसी बैंक में पैसा नहीं जमा किया, तो वहां से पैसे नहीं निकाल सकते। इसी तरह से जिस बैंक में हमने पैसे जमा किए हैं वहां से जितना चाहें अपना पैसा निकाल सकते हैं।

यही ऋग्वेद कहता है कि जो कर्म आपने किए हैं उसके परिणाम आपको मिलेंगे।

हम जीवन में तीन तरह के कर्म देखते हैं। इसमें दो तरह के कर्म मुख्य हैं। प्रत्‍येक व्यक्ति दो प्रकार के कर्म करता है जिन्‍हें हम अच्छे कर्म और बुरे कर्म में विभाजित कर सकते हैं।

अब प्रश्‍न है कि अच्छा कर्म किसे कहा जाए। तो इसका उत्‍तर है जिस कर्म से भलाई हो जाए, परोपकार हो जाए। सुख प्राप्ति हो जाए। उद्देश्‍य की सिद्धि हो जाए। वे अच्‍छे कर्म हैं और जिससे किसी की बुराई हो , दुख मिले, संताप मिले, काम रूकें तो ऐसे कर्म को हम बुरा कर्म कह देते हैं।

अब यहां दोबारा प्रश्‍न उठता है कि क्या वास्तव में यही अच्छे कर्म और बुरे कर्म हैं।

इसका उत्‍तर है कि हम जिस विचार या भावना से प्रेरित होकर कर्म करते हैं, वे विचार एवं भावनाएं ही अच्छा या बुरा कर्म बनाती हैं। जो अच्छा कर्म है वह हमें अच्छे परिणाम एवं परिणाम देता है। बुरा कर्म , बुरे एवं अशुभ परिणाम देता है।

हम इस संसार में देखते हैं कि बहुत से लोग दुखी हैं, कई तरह के कष्ट पा रहे हैं। जीवन अभावों से ग्रस्त है। जबकि दूसरी ओर ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो सर्वसुविधा संपन्न हैं।

यहां पर दो बातें विचारणीय है। पहली बात कि धनी होने एवं सुखी होने में अंतर है। आवश्यक नहीं है कि जो धनी है वह सुखी ही है और जो निर्धन है वह दुखी ही हो। दूसरी बात यह कि हमारे जो कर्म हैं और जो परिणाम हमें मिल रहे हैं वे केवल इस जन्‍म के ही नहीं होते।

हमारे पिछले जन्‍मों के कई कर्म होते हैं जिनका परिणाम हमें इस जन्म में मिल रहा होता है। किसी व्यक्ति को देख कर यह समझना कि वह अच्‍छे कर्म करके भी दुखी है या इसने कोई गलत कार्य नहीं किया है या यह दुष्‍कर्मी होकर भी धनवान दिख रहा है। इसने कोई श्रेष्‍ठ कर्म नहीं किया होगा। ऐसा विचार करना अनुचित है।

सनातन धर्म के अनुसार, शास्त्रों के अनुसार हम जो कोई कर्म करते हैं। हम किसी कामना की पूर्ति के लिए, किसी इच्छा से जो भी कार्य करते हैं। वे हमारे मन में एक संस्कार को उत्पन्‍न करते हैं वह संस्‍कार हमारी आत्‍मा से चिपक जाता है।

किसी व्यक्ति के मन में जब किसी दूसरे के प्रति हिंसा का विचार आता है तो वह संस्‍कार विचार के रूप में व्‍यक्ति के अंतर्मन में, अवचेतन में, आत्मा में चिपक गया और आगे चल कर वही संस्‍कार उसके दुख का कारण बनता है और उसको दुख देता है।

इसी तरह जो व्‍यक्ति करूणाभाव से प्रेरित होकर किसी व्‍यक्ति की भलाई करता है अच्‍छे कार्य करता है तो वे सदविचार के रूप में आत्मा की पवित्रता के रूप में अच्‍छे संस्‍कार के रूप में उसकी आत्मा में चिपक जाते हैं। वही आगे चल कर उसे सुख देता है।

तीसरे प्रकार का कर्म है अनासक्‍त भाव से किया गया कर्म। इसका उपदेश भगवान कृष्‍ण में गीता में दिया है। भगवान कहते हैं ऐसे कर्म जो अनासक्‍त भाव से किए गए हों, जो कर्म फल को ध्‍यान में रख कर नहीं किए गए हों। जिसके पीछे कोई कामना न हो जिसके पीछे कोई इच्‍छा न हो। जिसे हम उत्‍तरदायित्‍व समझ कर करते हों। उन्‍हें इस तीसरी श्रेणी में रखा जाता है। ये निष्‍काम कर्म हैं। अनासक्‍त भाव से किए कर्मों का कोई उद्देश्‍य नहीं होता। उनका कोई लक्ष्‍य नहीं होता। वह केवल कर्म होता है। ऐसा ही कर्म निष्काम कर्म है । यही कर्म वांछनीय है और यही कर्म इच्छित है।

भगवान शंकराचार्य ने, आदिगुरु शंकराचार्य ने सनातन धर्म के सत्य को पुन: प्रतिष्ठि‍त किया। वे भगवत स्‍वरूप हैं संत हैं। उनके जीवन का अनुगमन और अनुसरण करने से हमारे जीवन में हमारी आत्मा का उन्‍नयन होता है। हम उच्चतम सत्ता की ओर चल देते हैं। हमारे कर्म उच्चतम सत्ता की दिशा में मुड़ने लगते हैं। हमारे कर्मों से हमारा उद्देश्‍य धीरे धीरे अलग हो जाता है। हम अपनी स्वार्थ प्रवृत्तियों से ऊपर उठ जाते हैं। परोपकार की प्रवृत्तियों से ऊपर उठ जाते हैं। अनासक्त भाव से कर्म किए जाना ही जीवन का लक्ष्य है। यही मानव का लक्ष्य है। हमें इसी दिशा में अनुगमन करना चाहिए। यही सनातन धर्म का उपदेश है।

-आध्यात्मिक गुरु मनोज कुमार द्विवेदी

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