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समलैंगिक विवाह

समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने को लेकर सुनवाई सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ के सम्मुख चल रही है। सुनवाई के दौरान पीठ ने टिप्पणी करते हुए कहा है कि यह तथ्य ध्यान रखने वाला है कि विवाह की अवधारणा विकसित हुई है। इस मूल बात को स्वीकार किया जाना चाहिए कि विवाह स्वयं संवैधानिक संरक्षण का हकदार है क्योंकि ये केवल वैधानिक मान्यता का मामला नहीं है। कोर्ट ने जातिगत भेदभाव और छुआछूत को खत्म करने के संवैधानिक प्रविधानों का हवाला देते कहा कि संविधान खुद ही परंपराए तोडऩे वाला है। दूसरी ओर मध्य प्रदेश सरकार और जमीयत उलमा-ए-हिंद की ओर से समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता की मांग का विरोध किया गया। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में 20 याचिकाएं लंबित हैं जिनमें विशेष विवाह अधिनियम व अन्य कानूनों को भेदभाव वाला बताते हुए चुनौती दी गई है। मध्य प्रदेश सरकार की ओर से बहस करते हुए वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने कहा कि कोर्ट को इस बारे में कोई आदेश नहीं देना चाहिए और यह मामला विधायिका पर छोड़ देना चाहिए। उन्होंने कहा कि यहां सवाल है कि क्या समलैंगिक जोड़ों को विवाह करने का मौलिक अधिकार है? इस दलील पर प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि आप थोड़ी देर को समलैंगिक जोड़ों को छोड़ दीजिये, यह बताइये कि क्या किसी को भी शादी करने का मौलिक अधिकार है।

पुस्तक यौन मनोविज्ञान के लेखक हेवलॉक एलिस समलैंगिक मैथुन को लेकर लिखते हैं ‘हमें यह मानना ही होगा कि प्रत्येक सेक्स क्रोमोसोम में, चाहे वह एक्स-एक्स हो चाहे एक्स-वाई, उस आवेग का वह शारीरिक आधार निहित रहता है जो विकासमान व्यक्ति का पुरुष या स्त्री होना निश्चित करता है। जब दो अलग-अलग वंश जातियों के दो व्यक्तियों का संयोग होता है तो उससे अक्सर संतान स्वाभाविक नहीं होती और नर संतान में मादा के स्वभाव की प्रवृत्ति हो सकती है और अन्य परिस्थितियों में मादा संतान में नर के स्वभाव की प्रवृत्ति दिखाई पड़ सकती है। पंखियों के वर्ग में (जिनमें इस प्रक्रिया का विशेष रूप से अध्ययन किया गया है) ऐसा ही होता है। इस प्रकार की प्रवृत्ति के दो तरह के प्रभाव पैदा हो सकते हैं, जिनमें से एक को प्रबल और दूसरे को दुर्बल का नाम दिया गया है। यहां हम निम्न प्राणि-वैज्ञानिक रूपों में अंतरयौनता की अवस्था प्रत्यक्ष करते हैं। जब हम मानव पर आते हैं और मनोवैज्ञानिक क्षेत्र में प्रवेश करते हैं तो यह अंतरयौनता की अवस्था कभी-कभी (यद्यपि गलत तौर से) अंतर्वर्ती लिंग की दशा बताई जाती है। यदि कड़ाई के साथ कहा जाए तो वह पुरुष और स्त्रीलिंग को निश्चित करने वाले तत्त्वों में मात्रागत असंगति के होने का नतीजा है।

यह अंतरयौनता की अवस्था व्यक्ति की वंशानुक्रम से प्राप्त शारीरिक बनावट का एक हिस्सा होती है और इस कारण वह जन्मजात होती है और ज्यों-ज्यों विकास होता जाता है, त्यों-त्यों उसके अधिक स्पष्ट होने की संभावना रहती है। स्तनपान कराने वाले प्राणियों में यह अंतरयौनता मानसिकता क्षेत्र में भी आविर्भूत होती है। जब हम यौन विपरीतता के सुस्पष्ट मामलों पर विचार करते हैं, तो हमें कुछ ऐसे लक्षण मिलते हैं जो अक्सर पाए जाते हैं। जब कि यौन विपरीततायुक्त व्यक्तियों का संबंध एक पर्याप्त अनुपात में (मेरे अनुभव के अनुसार पचास प्रतिशत से अधिक) काफी स्वस्थ परिवार से होता है, लगभग 40 प्रतिशत में उनके परिवार में रोगग्रस्त दशा अथवा विकृृत मस्तिष्क दशा—सनकीपन, शराबखोरी, स्नायविक दुर्बलता या स्नायविक रोग—किसी न किसी अंश में, चाहे वह बहुत ही कम हो या ज्यादा, मौजूद रहते हैं। यौन विपरीतता का वंशानुक्रम सुस्पष्ट रहता है, यद्यपि कभी-कभी उसे मानने से इंकार किया जाता है।’

समलैंगिक विवाह को लेकर हेवलॉक एलिस का मानना है कि यौन विपरीततायुक्त व्यक्तियों के मामलों में कभी-कभी शादी का सवाल उठता है, यद्यपि अक्सर ही यह सवाल बिना डाक्टर की सलाह लिए तय कर लिया जाता है। इलाज की एक प्रणाली के रूप में, चाहे मरीज पुरुष हो या स्त्री, शादी को निरवच्छिन्न रूप से बिना किसी शर्त के ठुकरा देना चाहिए। यदि यौन सहजात पहले से ही उभलैंगिकता की ओर मुड़ा हुआ है, तो शायद यौन विपरीततायुक्त व्यक्ति के उभलैंगिक बनने की संभावना है, पर जब तक शादी होने के समय यौन विपरीतता का आवेग समाप्ति की ओर अग्रसर न हो गया हो, तब तक शादी से उसके समाप्त होने के अवसर कम से कम हैं। इसके विपरीत शादी होने पर यह परिस्थिति हो सकती है कि जीवनसाथी की तरफ से घृणा ही उत्पन्न हो और उसके फलस्वरूप यौन-विपरीतता और उग्र हो जाए। ऐसे कई मामले हुए हैं, जिनमें ऊपर से सुखी दिखलाई देने वाला यौन-विपरीततायुक्त व्यक्ति शादी के बाद ही इस तरह खुलकर खेला कि वह कानून के फंदे में आ गया। शादी के बाद पति अथवा पत्नी से या शादी के बगैर किसी अन्य व्यक्ति के साथ स्वाभाविक मैथुन को और कम से कम वेश्यागमन को यौन विपरीतता का इलाज नहीं माना जा सकता, जिसमें स्त्रियां ऐसे रूप में सामने आती हैं जो यौन विपरीततायुक्त व्यक्ति के भीतर विकर्षण ही पैदा करता है। ऐसा यौन विपरीततायुक्त व्यक्ति जिसकी गड़बड़ी जन्मजात पूर्व प्रवृत्तियों पर आधारित रहती है, सम्भवत: जीवनपर्यन्त यौन विपरीततायुक्त बना रहेगा और इसलिए इसमें परिवर्तन लाने वाले प्रभाव क्रमिक और बहुमुखी होने चाहिए।

उपरोक्त तथ्यों को देखकर यह कहा जा सकता है कि समलैंगिक विवाह को अतीत में भी सामाजिक स्तर पर मान्यता नहीं मिली थी बल्कि उसे एक बिमारी के रूप में ही देखा जाता था। आज भी समलैंगिक विवाह को लेकर समाज का दृष्टिकोण वही है जो सदियों पहले था। आज भी इसे असमान्य ही माना जा रहा है जो विवाह जैसे पवित्र बंधन के विरुद्ध ही है।

झुकते नवजोत सिद्धू

– इरविन खन्ना (मुख्य संपादक, दैनिक उत्तम हिन्दू)

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