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कर्नाटक चुनाव : विकास पर मुफ्तखोरी हावी

एक ओर सुप्रीम कोर्ट चुनाव से पहले फ्री योजनाओं के खिलाफ इस याचिका पर विचार कर रहा है कि क्यों न फ्री का प्रलोभन देने वाले राजनीतिक दलों की मान्यता रद्द कर दी जाए? दूसरी ओर कर्नाटक के चुनाव से पहले कुछ राजनीतिक दल ऐसे ही कुत्सित प्रयासों में जुटे रहे है। कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और जद एस जैसे राजनीतिक दल मुफ्त वादों के जरिए चुनावी लोकतंत्र की नींव को हिलाने में लगे रहे। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी इसके पक्षधर रहे हैं कि चुनावों से पहले ‘मुफ्त रेवडिय़ां’ के वादे करने पर तुरंत रोक लगनी चाहिए। क्योंकि इसके मूल में जनता का हित नहीं, बल्कि कुत्सित राजनीतिक स्वार्थ ही छिपे हैं। कर्नाटक में विधानसभा चुनाव के लिए राजनीतिक दलों की ओर से की गई लोकलुभावन घोषणाएं राज्य की अर्थ व्यवस्था पर भारी पड़ सकती हैं। कर्नाटक बेशक अमीर राज्य है, फिर भी उसकी प्रतिबद्ध देनदारियां इतनी हैं कि चुनावी वादों के नाम पर खैरात बांटने की गुंजाइश बिल्कुल नहीं है।

गौरतलब है कि पहले हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक के चुनाव परिणामों ने एक साथ कई बातों पर गंभीरता से विचार करने को बाध्य किया है। भारत के भविष्य की दृष्टि से इसमें एक प्रमुख मुद्दा है लोक कल्याणकारी कार्यों के नाम पर जनता को मुफ्त वस्तुएं और सेवाएं देने की घोषणाएं। अरविंद केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी ने राजधानी दिल्ली में चुनावी विजयों की दृष्टि से इसका सर्वाधिक चतुर उपयोग किया है। इसे ही विस्तारित करते हुए पंजाब तक ले गए और वहां भी शानदार विजय का सेहरा उनकी पार्टी के सिर बंधा। यहां इन घोषणाओं और वायदों में विस्तार से जाने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि सब कुछ देश के सामने है। साफ दिख रहा था कि दूसरी पार्टियां भी धीरे-धीरे ‘आप’ का अनुसरण कर रही हैं। कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश में पुरानी पेंशन व्यवस्था लागू करने से लेकर राशन, बिजली सहित ऐसे वायदे किए जो अर्थव्यवस्था के लिए क्षतिकारक है। संयोग से उसे विजय प्राप्त हुई। कर्नाटक में उसने ज्यादा विस्तार किया है। यह तो नहीं कह सकते कि भाजपा इस दौड़ में बिल्कुल शामिल नहीं थी । किंतु पुरानी पेंशन योजना की मांग को पूरी दृढ़ता से उसने खारिज किया। भारत की अर्थव्यवस्था और भविष्य की दृष्टि से यह बिल्कुल सही स्टैंड है। किंतु कर्नाटक में उसने भी कांग्रेस के समानांतर जनता को कुछ वस्तुएं और सेवाएं मुफ्त देने की घोषणा की।

हमारे देश के ज्यादातर नेता, एक्टिविस्ट, जिनको भारत राष्ट्र के भविष्य की कल्पना नहीं, जो बड़ी कल्पनायें नहीं करते, जो देश, मूल मुद्दों और आम लोगों के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों को समझने में सक्षम नहीं और उनका परिश्रमसाध्य समाधान नहीं दे पाते वे अपने को गरीब समर्थक साबित करने के लिए ऐसे ही राज्य द्वारा मुफ्त दान की प्रतिस्पर्धा में शामिल होते हैं।

स्वाभाविक ही इस अंधी दौड़ में जो पार्टियां या व्यक्ति उसके विरोध में खड़ा होगा, वह आज के हल्ला बोल माहौल में गरीब विरोधी और पूंजीपतियों, कॉर्पोरेट का दलाल और समर्थक तक करार दिया जाएगा। गांधी जी ने कहा था कि मैं देश में किसी मुफ्तखोरी की अनुमति नहीं दे सकता। उनका स्पष्ट कहना था कि शारीरिक परिश्रम के बगैर किसी व्यक्ति को भोजन नहीं मिलना चाहिए। वास्तव में अगर गहराई से देखें तो राजनीतिक पार्टियों की मुफ्त दान संबंधी घोषणायें और कदम देश के सामूहिक मानस को भिखारी बना देना है। जिस व्यक्ति, समाज और देश के अंदर यह भाव और व्यवहार नहीं है कि अपने समक्ष उत्पन्न कठिनाइयों, चुनौतियों को स्वयं के संकल्प और परिश्रम से निपटा जाएगा तो वह व्यक्ति, समाज और देश कभी सशक्त व स्वाबलंबी नहीं हो सकता।

एक बार समाज को अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की मुफ्तखोरी का स्वाद लग गया तो परिश्रम कर स्वयं को सक्षम बनाने का संस्कार नष्ट हो जाता है। उसमें उसका आत्मविश्वास भी खत्म हो जाता है। इस विचार और व्यवहार का प्रभाव देखिए कि जिनके के लिए कुछ किलो राशन, कुछ यूनिट बिजली या कुछ लीटर पानी का व्यय मायने नहीं रखता वह भी इससे प्रभावित होते हैं। कई चुनाव परिणामों विशेषकर दिल्ली, पंजाब आदि चुनाव परिणामों का निष्कर्ष तो यही है। वैसे भारत में मतदाताओं को रिझाने के लिए सरकारी खजाने से मुफ्त दान का लंबा इतिहास है किंतु इसकी शुरुआत लोग दक्षिण के आंध्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों से मानते हैं। वहां मुफ्त चावल से लेकर कलर टीवी, केबल कनेक्शन, मोबाइल तक देने की घोषणाएं हुईं और दी गईं।

केंद्र और राज्यों को आय के अनुरूप ही कल्याण और विकास के बीच संतुलन बनाते हुए खर्च करना है। इस तरह के मुफ्त दान और एक वर्ग को खुश करने के लिए पेंशन आदि बढ़ाई तो उसका असर समूची अर्थव्यवस्था पर होता है और दूसरे समूह भी इसकी मांग करते हैं। इससे विकास की नीतियां और कार्यक्रम प्रभावित होते हैं और व्यवहार में आम लोगों के कल्याणकारी योजनाओं में भी कटौती करनी पड़ती है। तो राजनीतिक दलों के लिए भी लंबे समय तक के लिए यह लाभकारी नहीं हो सकता। लोगों को उनकी आकांक्षाओं के अनुरूप सांस्कृतिक शैक्षणिक धार्मिक सामाजिक परिवेश सुरक्षा का वातावरण और विकास चाहिए, और न होने पर वह किसी पार्टी को सत्ता से हटा सकते हैं। एनटी रामाराव के नेतृत्व में ही तेलुगू देशम पार्टी की चुनाव में बुरी तरह पराजय हुई। अकाली दल ने भी पंजाब में लोगों को मुफ्त में काफी कुछ दिया, लेकिन यह उसकी सत्ता की स्थाई गारंटी नहीं बन सका। इसके विपरीत गुजरात में भाजपा लगातार 1995 से सत्ता में है। वहां के मतदाताओं ने आम आदमी पार्टी की मुफ्त घोषणाओं को स्वीकार नहीं किया। ये उदाहरण राजनीतिक दलों के लिए सीख होनी चाहिए।

वास्तव में मुफ्त दान यानी फ्रीबीज से विजय चुनाव परिणामों का केवल एक पक्ष है। 2014 में देश ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा को लोकसभा में पूर्ण बहुमत दिया, जिसकी कल्पना नहीं थी। उस समय भाजपा ने लोगों के खातों में नकदी पहुंचाने या मुफ्त दान की घोषणा नहीं की थी और न उससे लोगों को इसकी उम्मीद ही थी। देश का सामूहिक मानस भारत को दूसरे रूप में देखना चाहता था और मोदी मैं उसे अपनी कल्पना का प्रतिबिंब दिखा।
हिमाचल या कर्नाटक की पराजय भाजपा के अंदरूनी कलह की परिणति थी। आखिर किसान सम्मान निधि, कोरोना काल से अब तक मुफ्त राशन सहित घोषणापत्र में स्वयं कई मुफ्त वायदों के बावजूद उसे पराजय मिली तो कारणों की गहराई से समीक्षा करनी चाहिए। अगर शीर्ष केंद्रीय नेतृत्व की तरह राज्य संगठन और सरकार अपने लक्ष्यों, विचार और योजनाओं के प्रति ईमानदारी और प्रतिबद्धता परिलक्षित करेंगे तो जनता नकार नहीं सकती। तात्कालिक परिस्थितियों में किन्ही कारणों से पराजय मिली तो फिर से वापसी भी हुई है। कई दूसरे दलों के साथ भी यही लागू होता है। अगर भाजपा जैसी पार्टियां भी इस अंधी दौड़ में शामिल हो जाएंगी तो फिर अन्य दलों से उसके बीच कोई गुणात्मक अंतर नहीं रहेगा। सत्ता की दौड़ में शामिल कम्युनिस्ट पार्टियों का हश्र हम देख चुके हैं।

भाजपा जैसी विचारधारा वाली पार्टी के मूल कार्यकर्ता और समर्थक उससे मुफ्तखोरी की अपेक्षा नहीं करते। इसकी बजाय अपनी मूल घोषणा पर सरकार और संगठन को प्रतिबद्धता के साथ सक्रिय रहते देखना चाहते हैं। किसी भी पार्टी के विचारवान समर्थक अपने जनप्रतिनिधियों और नेताओं से यही अपेक्षा रखते हैं। यहां तक की मुफ्त का लाभ उठाने वालों में भी ऐसे लोग मिल जाएंगे जो इसकी आलोचना करेंगे। चुनावी राजनीति की अंधी दौड़ में ऐसे लोगों की भावनाओं का ख्याल न रखने वाली पार्टियां भविष्य में अपना ही नुकसान करेंगी। समर्थक और कार्यकर्ता यदि जनप्रतिनिधियों और नेताओं को विचारों के विपरीत काम करते, भ्रष्ट आचरण करते देखेंगे और उन्हें पार्टी महत्त्व देगी तो वे किसी न किसी तरह अपना असंतोष प्रकट करेंगे। उन्हें आप फ्रीबीज से संतुष्ट नहीं कर सकते। केंद्रीय वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण के इस कथन को भी कांग्रेस को याद रखना पड़ेगा कि कर्नाटक राज्य का बजट करीब तीन लाख करोड़ रूपये का है। अगर कांग्रेस कर्नाटक में निरंतर ही अपनी सभी घोषणाएं पूरी करे तो राज्य के कुल बजट का एक तिहाई से ज्यादा तो उस पर ही खर्च हो जाएगा। ऐसे में राज्य की अर्थव्यवस्था को गड्ढे में चली जाएगी। राज्य के जनता के भले के लिए प्रदेश के वित्तीय प्रबंधन के बारे में न सोचकर सिर्फ अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए लोकलुभावन घोषणाएं करना जनता के साथ अन्याय ही है।

कर्नाटक विधानसभा के चुनाव नतीजे से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। बहरहाल, ‘रेवड़ी कल्चर’, जिसे गाली की तरह प्रयोग किया गया है, भारत के संविधान के नीति-निर्देशक हिस्से में खूब अच्छे से वर्णित है। कोई भी सरकार और पार्टी का यह नैतिक दायित्व है कि इसके प्रावधानों को लागू करे। फिलहाल, कांग्रेस के सामने रेवड़ी बांटने से अधिक का विकल्प है नहीं। जो लोग कांग्रेस में भाजपा का विकल्प ढूंढ़ रहे हैं, इस मसले पर खुद को जरूर स्पष्ट रखें। मजदूर, किसान और मध्यवर्ग के लिए यदि आप रेवड़ी से अधिक की मांग कर रहे हैं।
अशोक भाटिया

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