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राजीव गांधी के हत्यारे की रिहाई

देश के सर्वोच्च न्यायालय ने पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारे एजी पेरारिवलन को जो 30 वर्षों से जेल में बंद था जिसे मार्च में उच्च न्यायालय ने ही जमानत दी थी को अब रिहा करने का आदेश दिया है। जस्टिस एल. नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने अनुच्छेद 142 के तहत अपने विशेषाधिकार का इस्तेमाल करते हुए यह आदेश दिया। संविधान का यह अनुच्छेद सुप्रीम कोर्ट को विशेषाधिकार देता है, जिसके तहत संबंधित मामले में कोई अन्य कानून लागू न होने तक उसका फैसला सर्वोपरि माना जाता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारे पेरारिवलन को न्यायालय ने यह देखते हुए 9 मार्च को जमानत दे दी थी कि सजा काटने और पैरोल के दौरान उसके आचरण को लेकर किसी तरह की शिकायत नहीं मिली। शीर्ष अदालत 47 वर्षीय पेरारिवलन की उस याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उसने ‘मल्टी डिसिप्लिनरी मॉनिटरिंग एजेंसी’ (एमडीएमए) की जांच पूरी होने तक उम्रकैद की सजा निलंबित करने का अनुरोध किया था। तमिलनाडु के श्रीपेरुम्बदुर में 21 मई, 1991 को एक चुनावी रैली के दौरान एक महिला आत्मघाती हमलावर ने खुद को विस्फोट से उड़ा लिया था, जिसमें राजीव गांधी मारे गए थे। महिला की पहचान धनु के तौर पर हुई थी। न्यायालय ने मई 1999 के अपने आदेश में चारों दोषियों पेरारिवलन, मुरुगन, संथन और नलिनी की मौत की सजा बरकरार रखी थी। इसके बाद 18 फरवरी, 2014 को शीर्ष अदालत ने पेरारिवलन, संथन और मुरुगन की मौत की सजा को उम्रकैद में तब्दील कर दिया था। न्यायालय ने यह निर्णय केंद्र सरकार द्वारा उनकी दया याचिकाओं के निपटारे में 11 साल की देरी के आधार पर किया था।

न्यायालय के उपरोक्त आदेश को कांग्रेस ने दुर्भाग्यपूर्ण करार देते हुए आरोप लगाया कि नरेंद्र मोदी सरकार ने ऐसे हालात पैदा किए कि अदालत को यह निर्णय देना पड़ा। पार्टी के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि आतंकवाद को लेकर सरकार का यह रवैया निंदनीय है। उन्होंने संवाददाताओं से कहा, ‘9 सितंबर, 2018 को तमिलनाडु की तत्कालीन अन्नाद्रमुक-भाजपा सरकार ने उस समय के राज्यपाल बनवारीलाल पुरोहित को सिफारिश भेजी कि राजीव गांधी की हत्या के सभी सात दोषियों को रिहा कर दिया जाए। राज्यपाल ने मामला राष्ट्रपति को भेज दिया। राष्ट्रपति ने भी कोई निर्णय नहीं किया। इस विलंब और भाजपा सरकार द्वारा नियुक्त राज्यपाल द्वारा निर्णय नहीं लिए जाने के कारण एक हत्यारे को रिहा कर दिया गया। अब सभी दोषी रिहा हो जाएंगे।’ कांग्रेस नेता ने कहा, ‘जिस आधार पर निर्णय हुआ है उस आधार पर तो हजारों तमिल कैदियों को छोड़ दिया जाना चाहिए। देश में आजीवन कारावास के लाखों कैदी हैं, उनको भी छोड़ दिया जाना चाहिए।’

कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला का चाहे गुस्से में यह कहना कि जिस आधार पर निर्णय हुआ है उस आधार पर तो हजारों तमिल कैदियों को छोड़ देना चाहिए, काफी हद तक उचित है। प्रश्न किसी के खुश या नाराज होने का नहीं, प्रश्न कानून और मानवीय पक्ष का है। 

एक इंसान जिसने अपने किये अपराध की सजा पूरी कर ली है और सजा के दौरान उसका व्यवहार भी ठीक रहा है तो कानून तथा मानवीय दृष्टि से रिहा होना उसका एक प्रकार से अधिकार बन जाता है। जब न्यायालय को लगता है कि अब अन्य किसी कारण से रिहाई को लटकाया जा रहा है तो न्यायालय ने विशेष अधिकार का इस्तेमाल कर मामले को निपटाने की पहल की है, वह उचित ही कही जाएगी।

पिछले दिनों ऑल इंडिया एंटी टैररिस्ट फ्रंट के चेयरमैन मनिंदर जीत सिंह बिट्टा ने एक पत्रकार वार्ता में कहा था कि एस.जी.पी.सी. और कुछ सिख जत्थेबंदियां कैदी सिखों को छोडऩे की मांग कर रही है। गत दिनों अमृतसर में एक प्रस्ताव पास करके कहा गया कि जब तक बंदी सिखों की रिहाई नहीं हो जाती तब तक संघर्ष किया जाएगा, लेकिन पंजाब में आतंकवाद के काले दौर में 36,000 बेकसूरों और 19,000 हिंदुओं के कत्लेआम में शामिल लोगों को सिख बंदी कैसे माना जा सकता है। जैसे हालात चल रहे हैं, आगे भी जो पकड़े जाएंगे, क्या वे भी बंदी सिख होंगे? उन्होंने कहा कि सिख कैदियों में शामिल कहे जाने वाले भाई दविन्द्रजीत सिंह भुल्लर को छोडऩे की मांग हो रही है जिसने कई जवान और बेकसूर लोगों को शहीद किया। मामला सुप्रीम कोर्ट में है और अब इस तरह की मीटिंगों से आम लोगों को भडक़ाया जा रहा है। वह 3 महीनों तक देखेंगे, अगर ऐसा प्रचार बंद न हुआ तो 15,000 आतंकवाद पीडि़त परिवारों को साथ लेकर सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका दायर करेंगे ताकि सच सामने आ सके कि आखिर आतंकवादियों के केसों में 1-1 घंटे की 20-20 लाख रुपए फीस लेने वाले वकीलों को फंडिंग कौन करता आ रहा है।

गौरतलब है कि  पिछले दिनों शिरोमणि कमेटी के प्रधान हरजिंदर सिंह धामी द्वारा देश की विभिन्न जेलों में सजा पूरी होने के बाबजूद सिख कैदियों की रिहाई के लिए 9 सदस्यीय कमेटी का गठन किया गया था। इस कमेटी ने सिख कैदियों की रिहाई के लिए संघर्ष करने की बात कही थी।

अब प्रश्न यह उठता है कि एक कैदी की अगर उसके द्वारा किए गुनाह की सजा पूरी हो चुकी है और उसका कैद के दौरान व्यवहार भी ठीक रहा है तब कानून और मानवीय दृष्टि से रिहा होना उसका हक बन जाता है। हां, अगर सरकार उसे रिहा नहीं करना चाहती तो उसका कारण भी तो सरकार को बताना होगा। सरकार द्वारा अपनाई नीति से अगर न्यायालय सहमत हो तो ठीक, नहीं तो कैदी कि रिहाई होनी चाहिए। एक लोकतांत्रिक देश में सभी के हक सुरक्षित रखने की जिम्मेवारी तो प्रशासन व सरकार की ही है।

कैदियों की रिहाई को लेकर कम से कम राजनीतिक लाभ-हानि को सम्मुख रख ब्यानबाजी नहीं होनी चाहिए। कानून की दृष्टि से जो ठीक है वह ही होना  चाहिए। देश के सर्वोच्च न्यायालय ने जो निर्णय लिया है समाज व देशहित में ही है।


– इरविन खन्ना, मुख्य संपादक, दैनिक उत्तम हिन्दू।

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