भारतवर्ष के सभी नागरिको को हिंदी दिवस की मंगलमय शुभकामनाएं। महात्मा गांधी ने कहा था, पूरे देश को एक सूत्र में बांधने का कार्य यदि कोई कर सकता है, तो वह केवल हिंदी भाषा ही कर सकती है। भारतीय संस्कृति की परिचायक, भारतवर्ष की आत्मा, विविधताओं के बीच सामंजस्य स्थापित करने की भावना एवं सभी को अपने में समाहित करने वाली भाषा हिंदी आज एक ऐसे शिखर पर विराजमान है, जहां से नीचे देखने पर केवल उपलब्धियां ही नजर आती हैं।
स्वाधीनता पश्चात एवं देश को एक करने की कठिनाईयों के बीच,संविधान सभा तथा राष्ट्र के शिल्पकारों ने 14 सितंबर 1949 को एकमत से हिंदी को भारतसंघ की राजभाषा का दर्जा दिया। यह केवल हिंदी तक ही सीमित नहीं था, कालान्तर में 22 भारतीय भाषाओं को भी फलने फूलने का मौका प्राप्त हुआ। देश को एक सूत्र में पिरोने का कार्य आज की तारीख में हिंदी ने बखूबी निभाया है एवं देश की अन्य भाषाओं के साथ कदमताल करते हुए पूरे विश्व में अपनी पैठ बनाई है। चाहे भौगोलिक विषमताएं हों या निष्पादन करने में अड़चने, हिंदी ने अपने कद को प्रखरता से बढ़ाया है एवं प्रयोगकर्ता को विश्वास दिलाया है कि उसके मनोरथ सिद्ध करने में हिंदी अग्रणी भूमिका निभा रही है। यह बात कहते हुए मुझे निजी रूप से बिल्कुल संकोच नही होता कि काफी हद तक हिंदी इस मनोरथ में सफल रही है लेकिन अभी कई मुकाम तय करने शेष हैं। उदाहरण स्वरूप दक्षिण एवं उत्तर भारत में भाषाई विविधता का अभी भी अंतर बने रहना एक महत्वपूर्ण विषय है। दोनो क्षेत्रों का परस्पर अपनी भाषाओं को श्रेष्ठतर बताने की बहस का क्रम चलते रहना भाषीय विविधता के समक्ष प्रश्न चिन्ह उत्पन्न करता है । इन सब के बावजूद हिंदी देशवासियों के बीच संपर्क सेतु का कार्य करने में सफल रही है।
थोड़ा सा पृष्ठभूमि में झांके तो लॉर्ड मैकाले की विध्वंसक सोच ने देशवासियों की भाषाई समृद्धता को नष्ट करने का कार्य बहुत अच्छे से किया। वह पूर्वाग्रहों से प्रेरित था और देशी भाषाओं में शिक्षा दिए जाने का धुर विरोधी था। मैकाले अंग्रेजों को सबसे उच्च नस्ल एवं अंग्रेजी भाषा को सर्वोत्तम मानता था और इसीलिए उसने अंग्रेजी भाषा और पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान के अध्ययन को प्रोत्साहित किया। जिसकी परिणिती यह हुई कि स्वतंत्रता प्राप्ति के लगभग 76 वर्षों के बाद भी हम सभी भारतीय कहीं न कहीं उसी कुंठित मानसिकता का शिकार हो रहे हैं। हालंकि सरकार के निरंतर प्रयासों ने शिक्षा व्यवस्था मेंहिंदीभाषा के विविध आयामों को स्पष्ट करते हुए अपनी सकारात्मक दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है। लेकिन इसके लिए एक लंबा रास्ता तय करना होगा। बस दरकार रहेगी भारतीय जनमानस का हिंदी के प्रति नैसर्गिक प्रेम पैदा होना।
ऐसा भी नही है कि हम भारतीयों के हिंदी प्रेम में कहीं कोई कमी है। यदि हम अपने आस-पास के परिवेश में देखें तो हिंदी बाजार की भाषा बनकर सभी के मस्तिष्क में घर कर चुकी है। देश में हिंदी समाचार पत्रों के पाठकसंख्या अंग्रेजी के समाचार पत्रों से अधिक हैं। घर-घर की चाहत बन चुके पिंडौरा बॉक्स अर्थात टीवी में आज हिंदी चैनलों की भरमार है। विदेशों की उच्च बजट की फिल्में भारत में हिंदी एवं क्षेत्रीय भाषाओं में रिलीज़ होती हैं एवं विदेशों से अधिक व्यवसाय करती हैं। यही नही खेल प्रतिस्पर्धाओं के चैनल प्रसारणकर्ता के प्लेटफॉर्म में आज पहले हिंदी में उपलब्ध होते हैं। प्रसारणकर्ता भी दर्शक की नब्ज टटोलते हुए अपने खेमे में हिंदी के ऐसे कमेंटेटर रखते हैं जिनका हिंदी में वाक्पटुता पर पूरा अधिपत्य होता है एवं वे उसे दूसरे खेमे में जाने ही नही देते। वर्तमान में क्रिकेट के खेल में एक व्यक्ति विशेष जो पेशे से पूर्व क्रिकेटर भी है उनकी हिंदी कमेंट्री के कद्रदानपूरे विश्व में हैं एवं चैनल उन्हें मुंह मांगी कीमत देने को तैयार हैं। संभवत: हिंदी कमेंट्री के क्षेत्र में ऐसा पहली बार हुआ होगा। यह हिंदी की बाजार में पैठ बनाने का एक बेहतरीन उदाहरण है। इसी तरह अन्य खेलों के लिए भी चैनलों ने समर्पित हिंदी चैनल लॉंच कर दिए हैं ताकि भारतीय दर्शकों के बीच उन्हीं की भाषा में खेल का आनंद दिया जा सके।
आज जब हम सब मिलकर हिंदी दिवस मना रहे हैं तो एक प्रश्न उठता है कि हर सालहम हिंदी दिवस मनाते हैं, प्रतियोगिताएं आयोजित करते हैं, जलपान करते हैं; फिर अगले बरस के हिंदी दिवस का इंतजार करते हैं। हिंदी अधिकारी होने के नाते मेरा ऐसा मानना है कि यह गलत धारणा है। हिंदी दिवस मनाने का मुख्य उद्देश्य है उसे भारतीय जनमानस का हिंदी के प्रति पुन: लगाव पैदा करना जो किन्हीं शासकीय या निजी कारणों से हिंदी से अलग हो चुके थे, उनके मन में हिंदी की अलख पुन: जगाना। कमोबेश यह प्रयास सफल भी होते हैं। अपने कार्यकाल में मैने ऐसे कई उदाहरण देखे हैं। हिंदी दिवस उनके मन में सुप्त पड़ चुकी उस आग को हवा देने काअवसर मात्र है।
खैर, आज हिंदी दिवस है; यदि हम 140 करोड़ से भी अधिक भारतीय मिलकर यह ठान लें कि हम अपने निजी, शासकीय प्रयोजनो, सरकारी अर्धसरकारी कार्यों में केवल हिंदी का ही प्रयोग करेंगें तोशायद हम अपनी सांस्कृतिक विरासत की भाषा को पुन: वही दर्जा दे पाएंगें जो हिंदी का आजादी से पहले था। गौर करने वाली बात है, हम सभी भारतीयों के शादी समारोहों में, आनंद कारजों में, निकाह जैसी पवित्र रस्मों में पंडित, ग्रंथी, मौलवी अंग्रेजी में मंत्रोच्चार नही करते, वो करते हैं, हिंदी, पंजाबी एवं ऊर्दू में। बात सीधी सी है, परंतु गंभीर है।
एक बार पुन: हिंदी दिवस की आप सभी को शुभकामनाएं।
प्रभजीत सिंह, वरिष्ठ प्रबंधक-राजभाषा।
(लेखक पंजाब नैशनल बैंक के चंडीगढ़ मंडल में राजभाषा संबंधी कार्य देखते हैं)
|