वक्त के तेवर बदल रहे हैं। हवाओं में मानवीय गुणों का ह्रास हो रहा है। नैतिकता और आदर्श जर, जोरू और जमीन के भौतिक लक्ष्यों के पीछे नीलाम कर दिए जाते हैं। देश में सांस्कृतिक गरिमा बहाल करने की बहुत से बातें हो रही हैं। यह राष्ट्र देवभूमि था और सर्वोच्च मानवीय गुणों से युक्त लोग यहां वास करते थे। वक्त बदला व भौतिकवाद का प्रसार होने लगा। चंद धनकुबेरों के पास राष्ट्र की धन-सम्पदा केन्द्रित हो गई और करोड़ों की भीड़ छोटी-छोटी जरूरतों को तरसती हुई रियायती बंटवारा संस्थानों के बाहर कतार बनाकर खड़ी रहती है। वहीं सांस्कृतिक गरिमा की तो क्या पूछिए। यहां बंदूक और पिस्तौल रखने के चलन ने एक नई संस्कृति पैदा कर दी, रक्तरंजित संस्कृति। छोटी-छोटी बातों के लिए पिस्तौल व बंदूक निकाल ली जाती है और दिन-दहाड़े फिरौती की धमकी मिलती है। मना करने पर लोग गोली से उड़ा दिए जाते हैं। ऐसे में लगता है सडक़ पर चलता हुआ कोई भी व्यक्ति सुरक्षित नहीं।
सरकार द्वारा कानून-व्यवस्था को बनाए रखने और अनुशासन द्वारा परिवेश को संचालित करने के दावों की कमी नहीं लेकिन असल जिंदगी में यही नजर नहीं आते। धीरे-धीरे प्रेम और जिंदगी भर का साथ निभाना या परिवार में जीवनभर स्नेहसूत्र में बने रहने की बातें जैसे अतीत की बातें हो गई हैं। ऐसी-ऐसी नृशंस हत्याओं की खबरें सुनाई देती हैं कि रूह कांप उठती है। लेकिन हत्यारों और अभियुक्तों को अपने किसी कृत्य पर पछतावा नहीं होता। कई बार कोई हत्यारा पकड़ा जाता है तो वीडियो में मुस्कुराता हुआ भी नजर आता है। श्रद्धा और आफताब की कहानी बेशक पुरानी पड़ गई लेकिन ऐसी निम्न प्रवृत्ति की मिसाल है। जिसके साथ लिव इन में रह रहा था, उसी से मन ऊब गया तो उसे टुकड़े-टुकड़े कर दिये। ऐसी ऐसी खबरें पढक़र मन कांप उठता है और लगता है दुनिया संवेदनशून्य हो गई।
अभी एक सौतेली मां की खबर है कि उसने अपनी बेटी पैदा होने के बाद सौतेली बेटी को मारकर उसकी हड्डियां तोडक़र बाल्टी में भरकर उसे तालाब में फेंक दिया। आदमी का मन कांप उठता है कि यह कैसी हिंसात्मक बस्ती बन गयी जहां संवेदना-भद्रता का कोई प्रसार नहीं। मानवीय गुण क्या बीते युग की बातें हो गईं? एक दिन की कुछ खबरें ही आदमी को चौंकाने के लिए काफी होती हैं। अभी एक खबर यह है कि एक मां के पास अपनी कोई संतान नहीं थी। उसने बेटी गोद ले ली। उसको काम न करने के लिए वह गर्म लोहे से दागती थी। बच्ची के जख्मों से खून रिसता था। ऐसा अत्याचार करने पर भी कथित मां का दिल नहीं कांपता था। स्कूल में जब बच्ची से पूछा गया तो उसने रोते हुए बात बता दी। जब मां से पूछा तो वह ऐसे कृत्य के लिए माफी मांगकर छुटकारा पा गई। अब इसकी क्या गारंटी है कि वह ऐसी अमानवीयता को दोहराएगी नहीं?
जमीन के लिए झगड़ते हुए भाई की भाई से लड़ाई तो महाभारत काल से चली आ रही है जहां पांच गांव भी न देने के कारण कौरवों और पांडवों के बीच इतना बड़ा युद्ध छिड़ गया। लेकिन आज तो घर-घर महाभारत है। सबको उनका हिस्सा मिल जाने के बाद भी ऐसे चतुर-चालाक मिल जाते हैं जो दूसरे का हिस्सा हड़पने के लिए उसे दूसरी दुनिया में पहुंचाने में संकोच नहीं करते। बेखौफ अपराधी समाज की पहचान बनते जा रहे हैं। पीडि़तों की सुनवाई नहीं होती।
इस हिंसा के साथ-साथ ठगी और झांसों की नई दुनिया भी शुरू हो गई है। ठगे जाने के बाद शिकायत पर एफआईआर दर्ज करवाने के बावजूद कानून के रखवालों की सक्रियता नजर नहीं आती। साइबर अपराधों में भी जितनी एफआईआर दर्ज होती हैं, उनका दस प्रतिशत भी पकड़ में नहीं आता। हमारे समाज में मां-बाप को भगवान के तुल्य रखने का संदेश दिया गया है। लेकिन अब बूढ़े मां-बाप के साथ जो व्यवहार उनकी संतानों द्वारा किया जाता है, वह वर्णन करने के काबिल भी नहीं। मां-बाप को नाकारा सामान की तरह घर से निकाल दिया जाता है या वृद्धाश्रमों में जाने की सलाह दी जाती है। यह इस देश का दुर्भाग्य है कि यहां वृद्धाश्रम पश्चिमी देशों की तरह विकसित नहीं। समृद्ध घर के लोगों द्वारा वहां आश्रय लेने के बाद उनकी जो हालत होती है, वह बयां नहीं की जा सकती।
देश में उचित रोजगार न मिलने के चलते बेहतर भविष्य बनाने के लिए अपने वर्तमान को बेचकर भी मां-बाप अपने बच्चों को विदेश भिजवा देते हैं। इसके बाद उनका संबंध केवल टेलीफोन या वीडियो कॉलिंग पर ही रह जाता है। हालत यह हो जाती है कि उनके दम तोड़ देने के बाद भी बच्चे अपना काम छोडक़र देश नहीं आ पाते। फोन कॉल से उनके दाहकर्म के लिए अंत्येष्टि गृहों की बुकिंग करवा देते हैं। हां, अगर कोई जायदाद रह जाए तो उसे बांटने के लिए तत्काल चले आते हैं। झगड़े-विवाद के बाद अपना-अपना हिस्सा लेकर अजनबियों की तरह विदा हो जाते हैं।
अभी पिछले दिनों लुधियाना में एक ट्रिपल मर्डर हुआ। उसके पीछे मामला केवल रंजिश का लग रहा है क्योंकि घर से कोई कीमती सामान गायब नहीं। एक रिटायर्ड एएसआई, उसकी पत्नी और बेटे की हत्या कर दी गई, वह भी निर्ममता के साथ। अपने मां-बाप पर हाथ उठाने वाली संतान की भी कमी नहीं जो नशे के लिए पैसा न मिलने पर उनकी हत्या करने से भी बाज नहीं आते। कहां गई वह संवेदना? जब मां-बाप ने उन्हें जन्म दिया, लाड़ से पाला, शिक्षा दिलवाई और अब उन्हीं के गाढ़े पसीने की कमाई पर आंखें गड़ाए नई पीढ़ी के लोग सब रिश्तों को तार-तार करते हुए केवल भौतिक सुख प्राप्ति को ही अपने जीवन का लक्ष्य मानते हैं। बाग, पशु, पक्षी, फल, फूल रहें या जाएं उनके लिए तो जरूरी है वह पैसा जो उन्हें वैध-अवैध तरीके से मिल सकता है। इसीलिए समाज में कायाकल्प के खोखले दावे रह गए हैं।
वास्तव में आज व्यक्ति जीवन में किसी बदलाव के संबंध में नहीं विचारता, केवल जेब भरने के बारे में सोचता है। इसीलिए इस समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास और दिखावे-आडम्बर के जरिये खुद को उच्च स्तर पर बैठे दिखाना आज के जीवन की पहचान बन गया है। भारत की संयुक्त परिवार प्रथा के गुण युगों से गाये जाते रहे। लेकिन आजकल पति-पत्नी के लिए भी साथ-साथ जीना मुश्किल हो गया। बेटे जवान होते ही मां-बाप की परवाह नहीं करते। ऐसे वातावरण में सही मूल्यों की वापसी कैसे होगी?
पुस्तक संस्कृति तो रही नहीं जो उन्हें राह दिखाती। हां, केवल जीवन के कटु अनुभव ही हैं जो उन्हें इस रास्ते से लौटाकर ला सकते हैं। लेकिन अगर कड़वे अनुभव उन्हें देश से पलायन करने का संदेश दे जाते हैं जैसा कि आजकल हो रहा है, तो भला मानवीय संवेदना का पुनर्जागरण होगा कैसे? ये वे प्रश्न है जो आज न केवल भावी पीढ़ी के सामने खड़े हैं बल्कि बुजुर्ग भी इनसे त्रस्त हैं। इन आंसुओं का लौटना ही शायद नैतिक मूल्यों का लौटना हो सकता है। लेकिन इन्हेें लौटाकर लाएगा कौन? नौजवानों में से ही चंद लोग उठें और सही मूल्यों को आवाज दें तो बात बनेगी।
लेखक साहित्यकार हैं।
(साभार : दै.ट्रि)
सुरेश सेठ
|