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पंजाब व पंजाबी नौजवानों के विकास का प्रयास करेंं

SCHOOL OF EMINEC PUNJAB

इस वर्ष 2022 की केन्द्रीय सेवाओं में चुने जाने वाले अधिकारियों में सिख उम्मीदवारों के कम चुने जाने के कारण कौम को प्यार करने वाले बहुत से लोगों ने चिंता जाहिर की है। चुने गए कुल 933 व्यक्तियों में से केवल पांच सिख नुमाइंदे ही पूरे देश में से चुने गए हैं। अन्य पंजाबी भी आटे में नमक के बराबर भी नहीं। इनमें से 11 और 191वें नंबर पर आने वाले प्रथम श्रेणी के दो प्रतियोगी जम्मू-कश्मीर के हैं। इस प्रकार पंजाब एवं पंजाबी सिख अफसरशाही में फिसड्डी हो गए हैं। धर्मयुद्ध मोर्चे शुरू होने से पहले जो पंजाबी एवं सिख बड़ी संख्या में केन्द्रीय सेवाओं में नजर आते थे, अब अफसरशाही में से गायब होते जा रहे हैं।

किसी भी लोकतंत्र के तीन स्तम्भ होते हैं, विधायिका, अफसरशाही एवं न्यायपालिका। विधायिका जो देश एवं समाज के लिए नीतियां बनाती है तथा न्यायपालिका के बारे में चर्चा करना भी आवश्यक है। स्वतंत्रता से पहले पं. जवाहर लाल नेहरू ने यह वायदा किया था कि आजाद भारत के उत्तरी हिस्से में एक ऐसा क्षेत्र बनाया जाएगा जहां सिख स्वतंत्रता का आनंद प्राप्त कर सकेंगे। उस समय शिरोमणि अकाली दल भी आजादी की मुहिम में कांग्रेस का साथी था। स्वतंत्रता का आनंद तलाशते जब भाषा के आधार पर प्रदेश बनाने की बात आई तो पंजाब को हक नहीं मिला परन्तु पंजाबी तो पूरे प्रांत में किसी न किसी रूप में पढ़ाई जाती थी और सारे पंजाबी बोलते भी थे क्योंकि अधिकतर मुख्यमंत्री आज के पंजाब से संबंधित थे, जिनमें श्री गोपीचंद भार्गव, श्री भीमसेन सच्चर, स. प्रताप सिंह कैरों, कामरेड रामकिशन, ज्ञानी गुरमुख सिंह मुसाफिर आदि। शिरोमणि अकाली दल चाहे पैप्सू में पहली सरकार बनाने में सफल हो गया था परन्तु पैप्सू के पंजाब में शामिल होने के बाद भी पंजाब में मुख्यमंत्री बनाने के लिए एम.एल.ए. की संख्या नहीं रखता था। पैप्सू में राज्य की विधानसभा के अंदर वर्ष 1952 में 19 तथा पंजाब में 13 एम.एल.ए. शिरोमणि अकाली दल के थे। वर्ष 1957 में कांग्रेस के साथ मिलकर अकाली दल ने एक चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़े एवं वर्ष 1962 में पंजाब में 16 अकाली एम.एल.ए. ही जीते थे। इस दौर में नौजवानों के भविष्य के विकास के लिए कोई बड़ा कार्य नहीं हुआ परन्तु अमन-शांति के चलते पंजाबी नौजवान सरकारी तंत्र में चुना जाता रहा है।

पंजाबी सूबे के मोर्चे से पंजाब का जो बंटवारा हुआ उसमें शिरोमणि अकाली दल के प्रतिनिधि संख्या में अधिक होने के कारण जब भी कांग्रेस विरोधी सरकार बनी तो मुख्यमंत्री शिरोमणि अकाली दल का ही बना लेकिन इस स्थिति ने पंजाबी भाषा का दायरा सीमित कर दिया। इस कारण दूसरे प्रदेशों में बसते पंजाबियों को पंजाबी पढऩे के लिए आज तक संघर्ष करना पड़ रहा है। धर्मयुद्ध मोर्चे के हुए कौमी नुक्सान और सिखों पर जुल्मों के कारण अकाली दल अपने आप में 75 सीटें जीत कर 1985 और 1997 में सरकार बनाने में समर्थ हो गया था। परन्तु पंजाबी सूबे के संघर्ष ने, जिसकी पंजाब या आम पंजाबियों को प्राप्ति कुछ भी नहीं हुई, इस दौरान हुई कत्लोगारत ने पंजाबी नौजवानों की पढ़ाई और बेहतरी की तरफ से विधानकारों का ध्यान दूसरी तरफ कर दिया। इसी कारण विधानसभा में बैठे प्रतिनिधियों ने नौजवानों के शैक्षणिक और आर्थिक विकास के लिए कोई दीर्घकालिक नीति नहीं बनाई।

विधानसभा में बैठे जन प्रतिनिधि 2022 तक तो सभी पंजाबी ही थी लेकिन अब प्रवासी भी चुनकर आए हैं। आज स्थिति यह है कि सिख बहुसंख्या वाले क्षेत्र जहां खालसा पंथ की जन्मभूमि भी है, में एक ऐसा मुख्यमंत्री है जिसको अपने नाम के पीछे सिंह लगाने में शायद लज्जा महसूस होती है। पता नहीं सिख धर्म में उसका विश्वास है भी या नहीं? आतंकवाद के बाद भी 2002 से पर्चे दर्ज करने की नूराकुश्ती खेलते, नशों, स्मगलिंग, लैंड माफिया, सैंड माफिया, शराब माफिया की पुश्तपनाही करते हुए शायद इनके पास पंजाबी नौजवानों के भविष्य की तरफ देखने और सोचने की समय ही नहीं है। सिखों एवं पंजाबियों के बीच इस प्रकार विधायिका, अफसरशाही और न्यायपालिका में से पंजाबी और सिख लुप्त होते जा रहे हैं। सिखों का सरकारी एवं वैधानिक संस्थाओं से गायब होने का कारण पंजाब में पिछले 43 वर्ष से अमन शांति को लगा धक्का है। यहां जलती चिताओं पर राजनीति होती रही है, पंजाबी एवं सिख नौजवानों को जीवन के अगले पड़ाव में ऊंचाइयां छूने के लिए तैयार करने के लिए नेताओं की ओर से कोई काम किया नजर नहीं आता। तीसरी बात न्यायपालिका की है। गुरुवाणी का सिद्धांत है – जग ज्ञानी विरला आचारी (अंग 412), केवल किताबों को पढक़र किसी कौम और धर्म की मानसिकता नहीं समझी जा सकती। इसलिए सिख समस्याओं के फैसले उनकी भावनाओं के अनुसार कैसे हो सकते हैं, यदि कोई उस धर्म को मानने वाले अदालतों में बैठे ही न हों। आज भारतीय सुप्रीम कोर्ट में एक भी सिख न्यायाधीश नहीं है। समय के सारथी होने और समाज को सचेत करने के लिए लेखकों का काम आवाज उठाना होता है।

लेखक ने एक किताबचा 2007 में इस बारे में अपनी चिंता जाहिर करते हुए लिख कर कौम के सभी प्रतिनिधियों को भेजा था, जिसे बड़ी संख्या में विश्व भर के समाचार पत्रों और पत्रिकाओं ने स्थान दिया था। ‘सिंहो खबरदार’ के नाम से लिखा गया था। चीफ खालसा दीवान के सदस्य के तौर पर भी यह मुद्दा है जिसे मैं औपचारिक और अनौपचारिक तौर पर उठाता रहा हूं। स्व. सरदार निर्मल सिंह के साथ, चंडीगढ़ गुरु हरिकृष्ण पब्लिक स्कूल में अकादमी स्थापित करने की बात भी की थी और बहुत से केन्द्रीय सेवा अधिकारियों को सहायता के लिए प्रेरित भी किया था। अंतिम नतीजा शून्य ही रहा है। पंजाब एवं सिख कौम की गिरती हालत देख बहुत से लोगों के साथ अब भी विचार-विमर्श किया है। बात केवल निंदा और चिंता करने तक ही सीमित न रह जाए, इसलिए देश-विदेश के कुछ लोगों ने सिख नौजवानों को केन्द्रीय सेवाओं के लिए तैयार करने के वास्ते एक अकादमी तैयार करने में मदद करने का भरोसा दिया है। परन्तु यह काम एक या दो व्यक्तियों का नहीं, इसके लिए पंजाब में एक बड़े स्थान की भी जरूरत होगी। प्रोफेसर्स, केन्द्रीय सेवाओं में रहे पंजाबी अधिकारी, कौम और पंजाब को प्यार करने वाले धनी व्यक्तियों की ओर से आर्थिक सहायता की भी जरूरत है। इसके लिए बहुत बड़ा काम करना होगा। सरकारें मदद कर सकती हैं परन्तु क्या किसी ने कभी यह विषय विधानसभा या लोकसभा में उठाया है? प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी एवं भारत सरकार के गृहमंत्री श्री अमित शाह सिक्खी को प्यार करते हैं, इसकी तरक्की के लिए हमेशा तैयार रहते हैं। समस्या केवल उनके साथ साझा करने की जरूरत होती है, जो जरूर की जाएगी। इस विनती पत्र द्वारा सिख कौम को प्यार करने वाले एवं इसकी पवित्र सोच को आगे बढ़ाने वालों को अपील है कि जो इसमें योगदान देना चाहते हैं, वे इस ईमेल— iqbalsingh_73@yahoo.co.in पर सम्पर्क कर सकते हैं।

लेखक राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के चेयरमैन हैं। 

इकबाल सिंह लालपुरा

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