कुलपतियो के चयन एवं नियुक्ति को लेकर पंजाब, केरल और पश्चिम बंगाल में राज्य सरकार एवं राज्यपालों के बीच विवाद एवं तनाव की स्थितियां बनी हैं। इससेे पूर्व तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश में भी कुलपतियों की नियुक्ति पर राज्यपाल और राज्य सरकार की असहमतियां चर्चा की विषय बनी थी। इस प्रकार के विवाद अनावश्यक तो है ही परंतु इनसे आमजन का व्यवस्था के प्रति विश्वास और श्रद्धाभाव क्षीण होता है। विवेक यही कहता है कि ऐसी व्यवस्था बने जिससे भविष्य में इस प्रकार की विवादास्पद स्थितियांं ना बनें।
देश में लगभग 1057 विश्वविद्यालय हैं, जिनमें से 126 मानद, 456 राज्य सरकार द्वारा स्थापित, 54 केन्द्रीय सरकार द्वारा संचालित, 421 निजी क्षेत्र में स्वपोषित विश्वविद्यालय है। हर विश्वविद्यालय का शैक्षणिक एवं प्रशासनिक नेतृत्व कुलपति के पास होता है। कुलपति की पहले स्तर की टोली में डीन-शैक्षणिक, कुलसचिव, शिक्षा नियंत्रक एवं वित अधिकारी होते है। विश्वविद्यालय को कुल 1/4 परिवार 1/2 मानते हुए उसका मुखिया कुलाधिपति कहलाता है। सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयां े के कुलाधिपति भारत के माननीय राष्ट्रपति होते है। राज्यों के विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति उस राज्य के राज्यपाल होते है। अपवाद स्वरूप कुछ विश्वविद्यालय ऐसे भी है जो केन्द्र एवं राज्य की मिश्रित रचना से चलते है जैसे पंजाब विश्ववविद्यालय, चंडीगढ़ हरियाणा, पंजाब और हिमाचल प्रदेश की वितीय सहायता से चलता था और नीति निर्धारण में भी तीनों राज्यों की भूमिका थी। देश के उपराष्ट्रपति कुलाधिपति है। केन्द्रीय विश्ववविद्यालय हो या राज्यों के सभी में कुलपति की नियुक्ति कुलाधिपति द्वारा का ही प्रावधान है। कुछ राज्यों मेें कुलपति के चयन एवं नियुक्ति कीप्रक्रिया में राज्य सरकार के योगदान या परामर्ष का प्रावधान नहीं है परंतु अधिकतर राज्यों में ऐसी व्यवस्था है कि राज्य सरकार की सलाह पर कुलाधिपति अर्थात राष्ट्रपति या राज्यपाल कुलपति की नियुक्ति करते हैं। प्रचलित व्यवस्था यह है कि तीन या पांच सदस्यों की एक सर्च कमिटी या चयन समिति बनायी जाती है जिसमें राज्यपाल का प्रतिनिधि, राज्य सरकार का प्रतिनिधि और विश्वविद्यालय से नामांकित व्यक्ति होते है। पूर्व में यह समिति किन्ही तीन या पांच व्यक्तियों के नाम कुलपति की नियुक्ति के लिए या तो राज्य सरकार के माध्यम से या सीधे राज्यपाल को भेजती है। यह नाम वर्णानु सार दिये जाते है न कि समिति की अनुषंसा के अनुसार प्रथम, द्वितीय आदि। कुलाधिपति समिति के द्वारा दिये गए नामों में से अपने विवेक के अनुसार किसी एक को नियुक्ति करते है। कुछ राज्य सरकारों में नियुक्त राज्यभवन से होती है कुछ में राज्य सरकार के उच्च षिक्षा विभाग के द्वारा। केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में लगभग ऐसी ही प्रक्रिया होती है। चयन समिति बनती है, वह कुछ नाम शिक्षा मंत्रालय को भेजती है जिसमें से किसी एक को राष्ट्रपति कुलपति बनने के लिए चिन्हित करते है। नियुक्ति शिक्षा मंत्रालय के द्वारा होती है। कुछ वर्षों पूर्व तक चयन समिति स्वयं योग्य विद्वानों के बारे में विमर्ष कर अनुषंसा करती थी परंतु वर्तमान में सभी केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में और अधिकतर राज्यों के विश्वविद्यालयों में कुलपति का पद विज्ञापित किया जाता है और प्राप्त आवेदनों में से चयन होता है। आवेदकों को चयन समिति साक्षात्कार या वार्ता के लिए भी बुला सकती है। कुलाधिपति अर्थात राष्ट्रपति और राज्यपाल को अधिकार है कि वे समिति द्वारा सुझाये व्यक्तियों को अस्वीकार करें और नये नाम देने का आदेश दें। कुलाधिपति सुझाये गए व्यक्तियों को बुलाकर बातचीत के आधार पर निर्णय ले सकते है। वर्तमान में विवाद के दो स्वरूप है। पहला यह कि कुलाधिपति के संज्ञान के बिना ही कुलपति की नियुक्तियां हुई। दूसरा विवाद कुलपति की अनिवार्य अहर्ता को लेकर है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की अनुषंसा अनुसार कुलपति को कम से कम दस वर्ष का प्रोफेसर के पद पर पढ़ाने का अनुभव अनिवार्य है। किसी वैज्ञानिक को भी प्रा ेफेसर के समकक्ष पद पर दस वर्ष का अनुभव अनिवार्य है। विवाद की जड़ राज्यों के विश्वविद्यालयों क अधिनियम है। प्रत्येक विश्वविद्यालय का अपना एक अधिनियम है जो कि राज्य की विधानसभा द्वारा पारित एवं संशोधित होते है। अनेक विश्वविद्यालयों में कुलपति की अनिवार्य योग्यता पूरी तरह परिभाषित नहीं है। प्रोफ ेसर के पद पर दस वर्ष का अनिवार्य होना अधिनियम में नहीं है। परंतु विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की अनुशंसाओं का अनुपालन करना भी राज्य सरकारों या विश्वविद्यालयों के लिए मानना भी जरूरी है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा दी गई मान्यता और समय-समय पर दिये गए अनुदानों में यह शर्त रहती है कि विश्वविद्यालय द्वारा विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की अनुशंसाओं को पूर्णत: मानना होगा। इस संबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय ने भी निर्णय दिया है कि राज्यपाल, राज्य सरकार और विश्वविद्यालय कुलपति की नियुक्ति के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के नियमों को पालन करने के लिए बाध्य है। जब किसी कुलपति की नियुक्ति पर राज्यपाल आ ैर सरकार में विवाद उठता ह ै तो शिक्षा जगत में बड़ी हलचल उठती है और संबंधित विश्वविद्यालय और उससे संबंधित महाविद्यालयों मे गंभीर अनिश्चिता की स्थिति बनती है और अंततोगत्वा नुकसान विद्यार्थी का होता है।
एक अन्य विषय पर ध्यान देनेे की आवश्यकता है। विश्वविद्यालय ं के अधिनियम बहुत पहले बने थे। नये विश्वविद्यालयों के अधिनियम भी पूराने अधिनियमों में थोड़ा बहुत परिवर्तन कर बना लिए जाते हैं। पिछले दो दशकों में उच्च शिक्षा का विस्तार तो हुआ ही है परंतु उसका स्वरूप भी पूरा बदल गया है। सीखने-सिखाने के विषय, पढ़ाने के तरीके, टेक्नोलॉजी और उच्च शिक्षा के विद्यार्थियां े की प्रवृतियां एवं जीवन दृष्टि में अमलू चूक परिवर्तित हुए हैं। आज क े विश्वविद्यालय को भविष्य के प्रशासकों, नीतिकारों, वैज्ञानियों, उद्योगपतियों एवं व्यापारियों को तैयार करने के लिए भिन्न प्रकार के शैक्षणिक नेतृत्व की आवश्यकता है। विश्वविद्यालय के कुलपति के लिए केवल योग्य विद्वान या वैज्ञानिक होना ही काफी नहीं है। सफल शैक्षणिक नेतृत्व के लिए कुलपति को भविष्यदृष्टा होने के साथ-साथ वित्त प्रबंधक एवं प्रशासनिक दक्षता भी होना आवश्यक है।
उसे नवीन टेक्नालेॉजी विषेषकर सूचना प्रोद्यौगिकी का व्यावहारिक ज्ञान होना भी अनिवार्य है। इससे पहले की कुलपतियों के नियुक्ति का विवाद अन्य प्रांतों या केन्द्रीय विश्वविद्यालयों तक भी पहुंचे, कुलपतियों की अनिवार्य योग्यता के विषय में आज के और भविष्य की भूमिकाओं को ध्यान में रखकर विमर्श आधारित निर्णय होने चाहिए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 का क्रियान्वयन भी तभी संभव है जब शेक्षणिक नेतृत्व पूरी तरह से परिवर्तन के लिए योग्य, दक्ष और समर्पित हो। देश में उच्च शिक्षा में ऐसे विद्यार्थियों की संख्या तीब्र गति से बढ़ रही जो निजी विश्वविद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करने का निर्णय करते है। वर्तमान में महाविद्यालय और विश्वविद्यालयों के कुल विद्यार्थियों का लगभग 23 प्रतिशत निजी महाविद्यालयों एवं विश्वविद्यालयों में है।
अनुमान है कि 2030 तक यह संख्या 45-50 प्रतिशत हो जायेगी। इसलिए आवश्यकता यह भी है कि निजी विश्वविद्यालयों के शैक्षणिक नेतृत्व के विषय में भी अग्रिम विमर्ष किया जाए। हर प्रांत का निजी विश्वविद्यालयों का अधिनियम अलग-अलग है। अधिकतर कुलपति की योग्यताएं निधारित है लेकिन कुलाधिपति कोई भी हो सकता है। यदि हमारे युवाया ें का बड़ा हिस्सा निजी क्षेत्र में शिक्षण-प्रशिक्षण करेगा तो केन्द्र एवं राज्य सरकारों का दायित्व बनता है कि निजी क्षेत्रों के विश्वविद्यालयों के कुलपति, कुलाधिपतियों व कुलसचिवों की न्यूनतम योग्यता तय करे जो पूरे देश में लागू हो। केन्द्रीय षिक्षा मंत्रालय इस दिषा में सचेत है परंतु किसी प्रकार का विलंब युवाओं के भविष्य के लिए हानिकारक होगा।
लेखक हरियाणा राज्य उच्च शिक्षा परिषद् के पूर्व अध्यक्ष हैं।
प्रो. बृजकिशोर कुठियाला
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