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देश के सुरक्षा हितों की सुरक्षा कौन करेगा?

मुझे ऐसा लगता है कि धृतराष्ट्र केवल महाभारत में नहीं हुए। हर युग में रहते हैं। विडंबना तो यह कि महाभारत में एक धृतराष्ट्र हुआ था और देश में महाभारत हो गया। लाखों युद्धवीर भरी जवानी में जीवन से हाथ धो बैठे। वैसे जिसके नेत्र नहीं होते उसके लिए हमारे यहां विशेषण है प्रज्ञा चक्षु अर्थात बाहरी आंखें न भी हों तब भी उसके अंर्त की आंखें बहुत काम करती हैं। आपने देखा भी होगा प्रज्ञा चक्षु बहुत बढिय़ा संगीतकार, लेखक, कथावाचक, ग्रंथों के विद्वान और आज तो विज्ञान के क्षेत्र में भी आगे बढ़ रहे हैं। सुना ही होगा कि बहुत थोड़ा समय पहले एक ऐसा ही युवक प्रशासनिक अधिकारी बन गया, देश की सबसे बड़ी परीक्षा उत्तीर्ण करके। आज क्या कहे कि धृतराष्ट्र एक नहीं, अनेक हैं, पर उनकी आंखें सही सलामत हैं। वे देख सकते हैं। संसार का हर सुंदर दृश्य देखते, उसका आनंद लेते और चर्चा भी करते हैं, पर यह आंखों वाले उनका दर्द नहीं समझ पा रहे जो इनकी आंखों के सामने ही बड़ी स्मार्ट यूनिफार्म पहने, कंधे पर सिक्योरिटी का बेच लगाए, बड़ी गति से अपने काम करते दिखाई देते हैं। उनके यूनिफार्म के अंदर पीड़ा, मजबूरी, दर्द क्या है, कोई नहीं जानता। वैसे सही बात तो यह है कि वे सब जानते हैं कि उनके शोषण और मानवाधिकारों के हनन के कानून भी इनमें से ही बहुतों ने बनाए हैं, पर न उनकी पीड़ा महसूस करते हैं, न सुनना चाहते हैं। देखकर भी अनदेखा करना, सुनकर अनसुना करना इन धृतराष्ट्रों की विशेषता है। एक बार फिर याद करवा दूं कि ये आंखों वाले धृतराष्ट्र हैं। क्या इस देश का श्रम विभाग देश और प्रदेश नहीं जानता कि उनके कागजी नियमों के अनुसार तो एक श्रमिक को छह दिन काम करने के बाद एक दिन का अवकाश मिलना ही चाहिए। अगर छुट्टी के दिन भी रोजगार देने वाले काम करवाते हैं तो उसका मेहनताना अलग से दिया जाता है, पर यह तो कागजी कानून है, क्या कभी किसी ने यह सिक्योरिटी का बेज लगाए युवक—युवतियों से पूछा कि कि सप्ताह की छुट्टी मिलती है या नहीं? न्यूनतम वेतन भी वे पा रहे हैं या नहीं? क्या देश के कानून में यह लिखा है कि एक सप्ताह में 84 घंटे काम करो और छुट्टी के नाम पर एक शब्द भी बोलना गुनाह समझा जाए? बड़े—बड़े होटलों में, नर्सिंग होम्स में, धार्मिक संस्थाओं में तथा अन्य कारपोरेट घरानों में न काम के घंटों की कोई सीमा है, न ही वेतन देने के लिए कोई एक नियम। मालिक की मर्जी है और जिसे रोटी चाहिए वह मजबूरी में मालिक की मर्जी को ईश्वर की मर्जी मानकर चलते हैं।

इसी प्रकार निजी नर्सिंग चिकित्सालयों में जो युवतियां हंसती—मुस्कुराती यस सर, यस मैडम कहतीं मरीजों की जिंदगी की रक्षा में लगी हैं उन्हें कोई नहीं पूछता। न नर्सिंग कौंसिल, न मेडिकल कौंसिल और न ही उनका वोट लेकर सत्ता के शिखरों पर पहुंचे सत्तापति कि उन्हें क्या मिल रहा है। बहुत कम नर्सिंग स्टाफ के सदस्य ऐसे हैं जो दस हजार से ज्यादा वेतन पाते हैं। एक बार फिर स्पष्ट कर दूं कि ये जो आम बड़े—बड़े महानगरों में बड़े नर्सिंग होम चलते हैं उनका दृश्य यूं कहिए कुदृश्य आपके समक्ष प्रस्तुत कर रही हूं। एक बार मैं एक निजी नर्सिंग होम में जहां मरीजों को लाखों रुपये देकर अपना उपचार करवाना पड़ता है वहां नाइट ड्यूटी में चाय पीने के लिए इक_ी हुई नर्सों का संवाद सुन रही थी वे उन दो सदस्यों को बधाई दे रही थी जिनका वेतन दस हजार के पार हो गया और फिर से साफ कह रही थीं कि थोड़ा अनुभव लेकर आखिर आस्ट्रेलिया या कनाडा जाना ही पड़ेगा। एक कटु पर सत्य यह भी है कि बहुत से नर्सिंग होम में रात की ड्यूटी के समय किसी भी नर्स को कुर्सी पर बैठने की आज्ञा नहीं। सोना तो बहुत दूर की बात है। मैंने अपनी आंखों से देखा, क्योंकि मैं अस्पतालों में मरीजों के साथ बहुत रही। एक नर्स काम निपटाकर झपकी लेने लगी और उसकी उस ड्यूटी का वेतन कटने का आदेश हो गया। यह ठीक है कि मैंने उसका वेतन नहीं कटने दिया। एक सच्चाई यह भी है कि इसी तरह के नर्सिंग होम चलाने वाले और गरीब पर मजबूर कर्मचारियों का रक्त शोषण करने वाले कुछ मालिकों के घर जब मैंने देखे तो आंखें चुधियां गईं। ऐसा लगता था जैसे संसार की सुख सुविधा का हर सामान इस आवास में है। एक भवन तो मुझे करोड़ों का नहीं, अरबों का लगा, पर उनके कर्मचारी वे चाहे सिक्योरिटी वाले हों, सेवादार हों या नर्सिंग स्टाफ हो, वे दस हजार की राशि एक साथ पाने के लिए तरसते और तड़पते रहते हैं। फिर वही बात वे आंखों वाले धृतराष्ट्र न देखते हैं, न सुनते हैं और अगर 108 एंबुलेंस के कर्मचारियों की तरह वे कम वेतन और काम के अधिक घंटे के विरुद्ध कभी आवाज भी उठाएं तो उन्हें सरकारी लाठियां भी पड़ती हैं और नौकरी से निकालकर दूसरे बेचारे बेकारों को रोजगार देने की धमकी भी मिल जाती हैं। कई बार निकालते भी हैं 108 कर्मचारी को, सेवादार को, सुरक्षा कर्मी को, नर्स को अन्य सबको भी। जो गरीब हैं, शोषित हैं उन्हें बोलने का, दर्द से चीखने का अधिकार तो अपने देश में है ही नहीं, क्योंकि सुरक्षा ताकत वालों की होती है, मजबूरों का क्या है।

मेरे एक नजदीकी संपर्क के ठेके पर काम करने वाले सरकारी कर्मचारी ने कहा कि जिस दिन दस हजार रुपया महीना मिल जाएगी, उनकी झुकी हुई कमर सीधी होने लगेगी। अभी तो आटे के साथ नमक का जुगाड़ करने में ही सारा वेतन समाप्त हो जाता है। हमारे समाज, शासकों और प्रशासकों का असली रूप तब दिखाई देता है जब हम अपने मंदिरों के पुजारियों को वेतन देने की बात करते हैं, जिनसे हम आशीर्वाद लेते हैं। अपने बच्चों को इनके पांव छूकर आशीष लेने की शिक्षा देते हैं उनको जब वेतन देने की बात आती है तो प्रबंधकों, मालिकों की कलम छह—सात हजार से ज्यादा लिखने को तैयार नहीं होती। एक बहुत बड़े मंदिर के पुजारी जी ने कहा कि उन्हें केवल चार हजार रुपया महीना मिलता है, जबकि मंदिर के प्रबंधक जो हैं अधिकतर अब अरबों के स्वामी हैं। मैं आंखों देखी, कानों सुनी कह रही हूं, क्योंकि संत कबीर की यह पंक्ति मुझे बहुत पसंद है— तेरा मेरा मनुवा कैसे इक होई रे.. तू कहता कागद की लेखी मैं कहती आंखन की देखी।

मेरे सामने एक पुजारी जी ने लगभग चिल्लाकर कहा कि अधिकारी कहते हैं चार हजार वेतन बहुत ज्यादा है, क्योंकि यह तो भक्तों से मांग ही लेंगे। मुझे शिकायत विरोध न करने वाले पुजारियों, कर्मचारियों, सिक्योरिटी गार्ड से है, शिकायत उनसे है जो श्रम विभाग के अधिकारी बने, दिल्ली और प्रदेशों की राजधानियों के ठंडे कमरे में रहते हैं, जनता के टैक्सों के पैसे से एयरकंडीशन्ड गाडिय़ों में चलते हैं। रौब जमाने में किसी से पीछे नहीं, पर उनकी बोलती तब बंद हो जाती है जब शोषण, मानवाधिकारों का हनन तथा श्रमिकों के लिए बने कानूनों की असलियत देखते हैं फिर भी खामोश रहते हैं, क्योंकि उन्हें वेतन इतना अधिक मिलता है कि चार छह हजार तो उनके कुत्तों के दूध, बिस्कुट पर ही खर्च हो जाता है। प्रश्न फिर वही है कि यह भूखे पेट आखिर कब तक शांत रह सकते हैं और अधिकतर वही लोग अपने वोट से सरकार बनाते हैं जो आने वाला कल सुखद होने की आशा में इन नेताओं को जो कभी उनके नेता बनते ही नहीं, वोट देते हैं। कौन नहीं जानता ?कि क्रांति भूखे पेट से निकलती है, महलों से नहीं, झोपडिय़ों से। मुझे एक ही बात कहती है नेताओं से— दुर्दशा मजदूर की मजदूर होकर देखिए, पांच सात हजार रुपये के साथ किराए के मकान में परिवार की गाड़ी चलाकर देखिए। कोठियों, बंगलों से नेताजी जरा मुंह मोडक़र सेठ साहूकारों की जेबों से रिश्ता तोडक़र भूख में दो मन का बोझा सिर पर ढोकर देखिए, दुर्दशा मजदूर की।
लक्ष्मीकांता चावला

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